13 मार्च 2024 को, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक पर अपनी सहमति दे दी है। उत्तराखंड विधानसभा ने 17 फरवरी 2024 को विधेयक पारित किया था । विधेयक के कानून बनने के साथ ही उत्तराखंड ,स्वतंत्रता के बाद ,समान नागरिक संहिता(यूसीसी) को लागू करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया।
उत्तराखंड के राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) गुरमीत सिंह ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत विधेयक को राष्ट्रपति के पास उनकी सहमति के लिए भेजा था । राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए विधेयक को मंजूरी दे दी है।
राष्ट्रपति के लिए राज्य विधेयक का आरक्षण
संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, किसी राज्य के राज्यपाल को राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए अनिवार्य रूप से आरक्षित करना होता है यदि विधेयक:
- उच्च न्यायालय की शक्तियों का हनन करता हो,
- संविधान के अनुच्छेद 288(2) के अंतर्गत कुछ मामलों में पानी या बिजली पर कर लगाने से संबंधित हो , या
- देश में,अनुच्छेद 360, के तहत लगे वित्तीय आपातकाल के समय राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित कोई धन विधेयक या अन्य विधेयक से संबंधित हो।
कुछ मामलों में, यदि राज्यपाल चाहे तो राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं अगर वो विधेयक राज्यपाल के अनुसार-
- संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध है ,
- अनुच्छेद 31 ग के प्रावधान से संबंधित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के विरुद्ध है,
- देश के व्यापक हित में, या गंभीर राष्ट्रीय महत्व का है, या
- संविधान के अनुच्छेद 31क के तहत अनिवार्य संपत्ति अधिग्रहण से संबंधित है।
अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की शक्ति
- राष्ट्रपति या तो राज्य विधेयक पर अपनी सहमति दे सकता है या अपनी सहमति नहीं भी दे सकता है। यदि राष्ट्रपति ने विधेयक को अपनी सहमति दे दी तो विधेयक कानून बन जाता है।
- यदि राष्ट्रपति सहमति देने से इंकार कर देता है तो विधेयक स्वतःसमाप्त हो जाता है।
- राष्ट्रपति के पास एक और विकल्प भी होता है। राष्ट्रपति राज्यपाल को विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानमंडल को वापस करने का निर्देश दे सकता है।
- राज्य विधानमंडल को छह महीने के भीतर विधेयक पर पुनर्विचार करना होगा। यदि राज्य विधानमंडल इसे दोबारा पारित कर देता है तो इसे दोबारा राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा । हालांकि , राष्ट्रपति अभी भी राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को अपनी सहमति दे भी सकता है और नहीं भी दे सकता है।
आजादी के बाद यूसीसी लागू करने वाला उत्तराखंड पहला राज्य
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भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रावधान है कि "राज्य पूरे भारत के क्षेत्र में भारत के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा"।
- उत्तराखंड विधान सभा, स्वतंत्रता के बाद राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 44 को लागू करने के लिए ,कानून पारित करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है।
- उत्तराखंड समान नागरिक संहिता अधिनियम उत्तराखंड सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता पर गठित एक उच्च स्तरीय समिति की सिफारिश पर आधारित है।
- सुप्रीम कोर्ट की सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजना पी. देसाई समिति की अध्यक्ष थीं।
गोवा में समान नागरिक संहिता
- हालाँकि, उत्तराखंड से पहले, गोवा में समान नागरिक संहिता लागू हुआ था । पुर्तगालियों ने 1867 में अपने देश में पुर्तगाली नागरिक संहिता लागू की और 1869 में, पुर्तगाली राजा ने इसे गोवा सहित अपने विदेशी उपनिवेश क्षेत्र में विस्तारित किया था। यह कानून विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि पर एक सामान कानून प्रदान करता है।
- भारतीय सेना ने 1961 में ऑपरेशन विजय के माध्यम से गोवा को पुर्तगाल के शासन से मुक्त कराया। गोवा को बाद में एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया।
- भारतीय संसद ने गोवा दमन और दीव प्रशासन अधिनियम 1962 पारित कर गोवा में पुर्तगाली नागरिक संहिता 1867 कानून को जारी रखा।
- इस प्रकार, यद्यपि गोवा समान नागरिक संहिता लागू करने वाला पहला राज्य था लेकिन स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के प्रावधान के अनुसार समान नागरिक संहिता लागू करने वाला उत्तराखंड पहला राज्य है।
समान नागरिक संहिता क्या है?
कानूनी प्रणाली की दो शाखाएँ हैं:
- नागरिक कानून
- आपराधिक कानून।
आपराधिक कानून समाज के विरुद्ध अपराधों, जैसे हत्या, चोरी, सेंधमारी और आगजनी इत्यादि से संबंधित है। समाज के विरुद्ध अपराध के आरोपी व्यक्ति को अदालत द्वारा दंडित किया जाता है।
नागरिक कानून दो पक्षों के बीच विवादों से संबंधित है। यहाँ पक्ष व्यक्ति या संगठन हो सकता हैं।
नागरिक कानून में किसी व्यक्ति की शादी, तलाक, बच्चा गोद लेना, संपत्ति, उत्तराधिकार आदि से संबंधित विवाद आते हैं।
दोनों के बीच मुख्य अंतर यह है कि आपराधिक कानून सजा पर केंद्रित है जबकि नागरिक कानून विवाद समाधान पर केंद्रित है।
भारत में आपराधिक कानून के संदर्भ में एकरूपता है। इसका मतलब यह है कि किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके द्वारा किए गए अपराध की प्रकृति के आधार पर किया जाता है, न कि वह मुस्लिम, हिंदू, ईसाई आदि है या नहीं। यहां, व्यक्ति की धार्मिक पृष्ठभूमि कोई मायने नहीं रखती है।
गोवा और उत्तराखंड को छोड़कर भारत में कोई सामान नागरिक कानून नहीं है। इसका मतलब यह है कि किसी व्यक्ति के विवाह, तलाक आदि से संबंधित मामले संबंधित पक्षों के रीति-रिवाजों और परंपराओं के आधार पर तय किए जाते हैं। यदि किसी मुस्लिम समुदाय से जुड़ा तलाक का मामला है, तो अदालत मुसलमानों के रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार मामले का फैसला करेगी।